दौड़ता
आवेग बनके
जिस्म की -
इस वीथिका में .
चिर संचित -
प्राण अमृत -
डोलता जो -
वृक्ष की अंतिम
शिरा में .
कौन हूँ मैं -
कह रहा है .
प्रीत का -
प्रतिबिम्ब हूँ
जो अश्रुओं में
बह रहा हूँ .
हे विरह के
भीत मानव
पीर मैं क्यों
सह रहा हूँ .
देख मन के
चक्षुओं से -
साथ तेरे -
रह रहा हूँ .
आवेग बनके
जिस्म की -
इस वीथिका में .
चिर संचित -
प्राण अमृत -
डोलता जो -
वृक्ष की अंतिम
शिरा में .
कौन हूँ मैं -
कह रहा है .
प्रीत का -
प्रतिबिम्ब हूँ
जो अश्रुओं में
बह रहा हूँ .
हे विरह के
भीत मानव
पीर मैं क्यों
सह रहा हूँ .
देख मन के
चक्षुओं से -
साथ तेरे -
रह रहा हूँ .
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